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Channel: Navbharat Times

दो बादशाह और एक मस्जिद

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विवेक शुक्ला

पुराना किला परिसर में सन 1541 में बनी मस्जिद किला-ए-कुहना दो बादशाहों से रिश्ता रहा। इसके निर्माण में दोनों का योगदान रहा। हालांकि ये एक-दूसरे लड़े भी। शेरशाह सूरी ने इसका निर्माण अपने निजी इस्तेमाल के लिए किया था। हालांकि ये तामीर होनी शुरू हुई थी हुमायूं के दौर में। इस पर कुरान शरीफ की सूरतें अंकित हैं। इसी परिसर में मस्जिद खैरुल मनाजिल भी है। इसे पूरी तरह से उसी शेरशाह सूरी ने बनवाया था, जिसने भारत को जीटी रोड दिया था। उस वक्त इस मार्ग को सड़क-ए-आजम नाम से जाना जाता था।

शेरशाह सूरी का ‘शेरगढ़’ : आप कह सकते हैं कि मुगल साम्राज्य को सन 1540 में तगड़ा झटका शेरशाह सूरी ने दिया। उसने हुमायूं को युद्ध में परास्त कर दिल्ली पर कब्जा जमाया। शेरशाह सूरी ने यहां एक अन्य शहर को बसाया। उसका नाम दिया ‘शेरगढ़’। शेरगढ़ के अवशेष आज भी पुराना किला में मिलते हैं। शेरगढ़ तीन दरवाजों से घिरा था। ये तीनों लाल बलुआ पत्थर से बनवाए गए थे। शेरगढ़ का निर्माण का कार्य 1540 में चालू हुआ था। इधर ही शेरशाह सूरी गेट भी है, जिस पर पिछले कई सालों से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआइ) का ताला लगा हुआ है। ये बेहद खराब स्थिति में हैं। पुराना किला से सटी दरगाह हजरत मटका पीर के गद्दीनशीन मोहम्मद कय्यूम अब्बासी कहते हैं कि कायदे से शेरशाह सूरी के इस स्मारक का संरक्षण होना चाहिए। वे एक धर्मनिरपेक्ष बादशाह थे।

दीनपनाह की जगह क्या : दरअसल जिधर पुराना किला है, वहां पर ही मुगल बादशाह हुमायूं ने अपनी राजधानी दीनपनाह का निर्माण करवाया था। पुराना किला का वर्तमान स्वरूप शेर शाह सूरी की देन है। सन 1545 में शेरशाह सूरी की मृत्यु के बाद उसके पुत्र इस्लाम शाह ने इसे पूरा किया। शेर शाह ने दीनपनाह को ज़मींदोज करके ही शेरगढ़ तामीर करवाया था। हालांकि दिल्ली पर 1555 में हुमायूं का फिर से कब्जा हो गया था। तो हुमायूं और शेरशाह सूरी का आपसी और दिल्ली से गहरा संबंध रहा। दोनों ने दिल्ली को समृद्ध भी किया। शेर शाह सूरी का मकबरा बिहार के सासाराम शहर में है। उधर, हुमायूं का मकबरा राजधानी में ही है।


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दिल्ली ने याद रखा दांडी मार्च को

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महात्मा गांधी ने 12 मार्च 1930 को साबरमती से दांडी मार्च शुरू की थी। उसी सत्याग्रह की याद में सरदार पटेल मार्ग-मदर टेरेसा क्रिसेंट पर 'ग्यारह मूर्ति' स्थापित की गई थी। ग्यारह मूर्ति में बापू के साथ मातंगीनी हज़रा को भी दिखाया गया है। मातंगीनी हज़रा महान भारतीय क्रांतिकारी महिला थीं। गोरी सरकार की पुलिस ने 29 सितंबर, 1942 को तमलुक पुलिस स्टेशन (पूर्वी मिदनापुर जिले के) के सामने उन्हें मार डाला था। ये अफसोस कि इतनी महान स्वाधीनता सेनानी के नाम पर राजधानी में कोई सड़क या संस्थान का नाम नहीं है।

ग्यारह मूर्ति में और कौन-कौन : ग्यारह मूर्ति में बापू के साथ सरोजनी नायडू और उनके परम मित्र चीफ जस्टिस अब्बास तैयबजी भी हैं। सरोजनी नायडू के नाम पर सरकारी बाबुओं की एक कॉलोनी भी है। पर अब्बास तैयब जी के व्यक्तित्व और कृतित्व से मौजूदा पीढ़ी बहुत परिचित नहीं है। दांडी यात्रा की सारी तैयारी करने वालों में तैयबजी साहब थे। वे कांग्रेस की तरफ से जलियांवाला कांड की जांच के लिए बनी एक कमेटी में भी थे। उनके चाचा बदरुद्दीन तैयबजी कांग्रेस के तीसरे अध्यक्ष बने। बदरुद्दीन तैयबजी की परपौत्री लैला तैयबजी ने ही दिल्ली में दस्तकार नामक संस्था की स्थापना की थी। वो शांति निकेतन में रहती हैं। अब्बास तैयब जी का 1936 में निधन हो गया था।

किसने बनाई थी ग्यारह मूर्ति : ग्यारहमूर्ति को महान मूर्तिकार देवीप्रसाद राय चौधरी ने तैयार किया था। उनका चित्रकला और मूर्तिकला पर समान समान अधिकार था। उनकी आदमकद मूर्तियों में गति व भाव का शानदार समन्वय है। इसे आप ग्यारह मूर्ति में भी देख सकते हैं। उनकी कला का मुख्य विषय सामान्य जन, रोज़-मर्रा की जिंदगी और परिवेश से प्रेरित रहा। उनकी कला में वास्तविकता अपने स्वाभाविक भाव में दिखती है। वे उन आधुनिक मूर्तिकारों में से थे जिन्होंने ब्रोंज माध्यम में भी काम किया। उनके अतुल्यनीय योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्म भूषण’ से 1958 में सम्मानित किया था। इस बीच, ग्यारह मूर्ति से गांधी जी का गोल चश्मा 1999 से गायब है, लेकिन पुलिस अभी तक न तो चश्मे को खोज पाई है और न ही चोर को। ये बात समझ से परे है कि किसी को उस चश्मे को उतार कर क्या मिला होगा?




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साठ की हो गई है अपनी दिल्ली आईआईटी

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विवेक शुक्ला

अपनी दिल्ली आईआईटी के लिए यह साल यादगार है। ये अपने साठ सालों के सफर को पूरा कर रही है। 28 जनवरी, 1959 को ड्यूक ऑफ एडिनबर्ग प्रिंस फिलिप ने इसकी आधारशिला रखी थी। हालांकि इधर कक्षाएं 1961 में चालू हुई थीं। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने आईआईटी का डिजाइन तैयार करने की जिम्मेदारी प्रो.जे.के. चौधरी को सौंपी थी। नेहरू जी को प्रो. चौधरी की क्षमताओं का तब पता चला था, जब वे चंडीगढ़ के डिजाइन को अंतिम रूप दे रहे थे। चौधरी चंडीगढ़ के चीफ टाउन प्लानर थे। उनपर वॉल्टर जार्ज के काम का भी खासा असर था। जॉर्ज सेंट स्टीफंस कॉलेज, ग्वायर हॉल और सुजान सिंह पार्क के डिजाइनर थे।

किन गांवों पर खड़ी हुई आईआईटी : आईआईटी कैंपस के लिए 320 एकड़ जमीन जिया सराय, बेर सराय और कटवारिया सराय गांवों से अधिग्रहित की गई थी। आईआईटी कैंपस में क्लास रूम, छात्रावास, हॉल, प्रयोगशालाएं, फैकल्टी के फ्लैट्स, कर्मचारियों के फ्लैट वगैरह का निर्माण किया जाना था। प्रो. चौधरी को इतने विशाल कैंपस में अलग-अलग उपयोग में आने वाली इमारतों के डिजाइन तैयार करने थे। उन्होंने अपनी योग्यता को साबित किया। जब आईआईटी का निर्माण हो रहा था, तब दिल्ली या देश के दूसरे भागों में बिजली की भारी किल्लत थी। इस बात का अहसास था प्रो. चौधरी को। इसलिए उन्होंने आईआईटी कैंपस की सभी इमारतों की खिड़कियों के डिजाइन पर विशेष ध्यान दिया। इसी के परिणाम स्वरूप यहां पर बिजली गुल होने पर भी कक्षाओं, प्रयोगशालाओं और टीचर्स या कर्मियों के घर गुलजार रहते हैं।

कौन-कौन रहे छात्र आईआईटी में? : आईआईटी दिल्ली ने देश-दुनिया को चोटी के सीईओ से लेकर इंजीनियर दिए। आप देश में नए उद्यमियों और ई-कामर्स की बात करें और सचिन बंसल और बिन्नी बंसल की चर्चा ना करें ये तो नहीं हो सकता। इन दोनों ने 2007 में फ्लिपकार्ट की स्थापना की थी। यहां से ही रिजर्व बैंक के पूर्व चेयरमैन रघुरामन राजन, आईटीसी लिमिटेड के चेयरमेन योगेश्वर देवेश्वर, उपन्यासकार चेतन भगत भी निकले। यहां की शानदार फैकल्टी भी बेजोड़ रही। आईआईटी दिल्ली को समृद्ध करने में बायो मेडिकल इंजीनियरिंग विभाग के डा. दिनेश मोहन, अप्लाइड मकैनिक्स विभाग के प्रो. आर.के. मल्होत्रा, इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग विभाग के डा. ए.एल अग्रवाल और सिविल इंजीनियरिंग विभाग की प्रो. गीतम तिवारी के योगदान को नजर अंदाज करना असंभव है।




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खिलजी के हौज खास में अमृता प्रीतम

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विवेक शुक्ला

बीती फरवरी में साउथ दिल्ली के शाहपुर जट गांव में लोककला उत्सव मनाया गया। इसके आसपास हौज खास और सिरी (फोर्ट) में ही सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की राजधानी थी। गुलाम वंश के बाद 13वीं शताब्दी के अंत में खिलजी वंश दिल्ली में सत्तासीन हुआ। वक्त का पहिया घूमा तो आगे चलकर हौजखास में पंजाबी की प्रख्यात लेखिका अमृता प्रीतम ने भी अपना आशियाना बना लिया। बहरहाल, खिलजी के दौर से ही ये सारा क्षेत्र जल संकट से जूझता था। इसलिए उसने अपनी जनता को जल आपूर्ति के लिए हौज खास में एक जलाशय का निर्माण करवाया था।

हौजखास से शाहपुर जट
अगर बात खिलजी से हटकर करें तो देश के बंटवारे के बाद हौजखास एक पॉश कॉलोनी के रूप में उभरी। इधर पंजाबी के बहुत से लेखकों ने अपने घर बनाए। इन्हें दिल्ली के तत्कालीन कमिश्नर डा. एम.एस. रंधावा ने बुलाकर प्लॉट दिए थे। उसी दौरान सफदरजंग डिवेलपमेंट एरिया (एसडीए), कौशल्या पार्क जैसे पॉश इलाके बने। 1950 के आसपास यहां पर जंगल वाली स्थिति थी। जाट बिरादरी का गांव शाहपुर जट गांव आबाद था। इधर चौधरी दिलीप सिंह जैसे स्वाधीनता सेनानी रहते थे। वे 1971 में साउथ दिल्ली सीट से लोकसभा का चुनाव जीते थे। इधर सन 1982 में एशियाई खेलों के दौरान एशियन गेम्स विलेज और सिरी फोर्ट ऑडिटोरियम का निर्माण हुआ। फिर तो ये खिलजी की राजधानी गुलजार हो गई।

सन्नाटे में खिलजी की मजार
महरौली में कुतुब मीनार परिसर में ही अलाउद्दीन खिलजी चिरनिद्रा में है। शायद ही कोई उनकी मजार पर जाता हो। अपनी राजधानी से काफी दूर हैं पदमावती फिल्म में विलेन बना दिए गए खिलजी। हालांकि उनकी राजधानी के प्रमुख क्षेत्रों जैसे हौजखास, हौज रानी, सिरी, शाहपुरजट में हर वक्त चहल पहल रहती है। इसके आसपास मेफेयर गार्डन, ग्रीन पार्क और गुलमोहर पार्क भी बने। ये सब बेहद खासमखास इलाके हैं। मेफेयर गार्डन में मुख्य रूप से सिंधी समाज रहता है। ये सिंधी परिवार यहां आने से पहले लाजपत नगर, अमर कॉलोनी, राजेन्द्र नगर वगैरह में रहते थे। गुलमोहर पार्क और मेफेयर गार्डन 1970 में बसनी चालू हुई थीं। गुलमोहर पार्क राजधानी में पत्रकारों की पहली आवासीय कॉलोनी है।

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कितने और कहां-कहां काले खान

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विवेक शुक्ला

काले खान का जिक्र आते ही, पहला ख्याल जेहन में आता है सराये काले खान आईएसबीटी का। इधर से रोज राजस्थान और हरियाणा के लिए सैकड़ों बसें सफर पर निकलती हैं। दरअसल सराये काले खान मुख्य रूप से गुर्जर बिरादरी का गांव है। तो फिर यहां का नाम सराये काले खान कैसे पड़ा? एक राय यह है कि इस स्थान का नाम शेर शाह सूरी के दौर के मशहूर पीर काले खान के नाम पर है। हुमायूं को 1540 में जंग में परास्त करके शेर शाह सूरी ने दिल्ली पर कब्जा जमाया था। काले खान की मजार इंदिरा गांधी इंटरनैशनल एयरपोर्ट क्षेत्र में है।

काले खान का गुबंद : आपको साउथ एक्सटेंशन-पार्ट वन में काले खान का गुंबद मिलेगा। इसे कोई देखने वाला नहीं है। ये साउथ एक्सटेंशन मार्किट से पीछे की तरफ है। इस गुबंद से करीब ही कोटला मुबारकपुर है। इसके चारों तरफ कोठियां खड़ी हैं। काले खान गुबंद की दीवार पर इसके निर्माण का साल 1481 लिखा है। माना जाता है कि इसका निर्माण मुबारक खान लोहानी ने करवाया था। वो लोधी वंश के दौर में शक्तिशाली इंसान था। हालांकि इस दावे का कोई पुख्ता प्रमाण नहीं मिलता। ये भी नहीं पता चलता कि इस गुबंद को काले खान का गुबंद क्यों और कब से कहा जा रहा है?

महरौली में भी काले खान : महरौली के चप्पे-चप्पे पर कोई तारीखी इमारत मिल जाती है। इधर हवेली काले खान नाम से एक खंडहर है। कहते हैं कि ये बहादुरशाह जफर के आध्यात्मिक गुरु काले खान की हवेली हुआ करती थी। बता दें कि बहादुरशाह जफर एक और सूफी फकीर कुतुबद्दीन बख्तियार काकी के प्रति भी आदर का भाव रखते थे। उनकी मजार भी महरौली में है। बहरहाल, काले खान साहब उस दौर में थे जब यहां पर जफर और गालिब साहब भी थे। काले खान साहब का यहां के समाज में खासा सम्मान था। इस बीच, दिल्ली-6 में एक जगह का नाम अहाता काले खान भी है। ये बल्लीमरान में है। इधर ही तो गालिब साहब रहा करते थे।

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पहला किला लाल किला नहीं

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विवेक शुक्ला

अपनी दिल्ली की बात होने पर लाल किले का जिक्र हो ही जाता है। पर यहां सबसे पहला किला तोमर राजपूत वंश के राजा अनंगपाल ने बनवाया था। दिल्ली के बारे में पहला जिक्र 736 ईसवीं में मिलता है। तब राजा अनंगपाल ने लाल कोट किला महरौली में बनवाया। उन्होंने किले की सुरक्षा के लिए बुर्ज और गेट बनवाए थे। उसने इनके नाम रखे गजनी गेट, सोहन गेट, रंजीत गेट। एएसआई के अनुसंधान के दौरान इन दरवाजों का पता चला था। लाल कोट से लगभग 24 किलोमीटर दूर आगे चलकर लाल किला का मुगल बादशाह शाहजहां ने निर्माण करवाया।

राजा अनंगपाल से पृथ्वीराज चौहान तक : राजा अनंगपाल तोमर राजपूत वंश के राजा थे। तोमर राजपूत वंश के कई राजाओं के नाम अनंगपाल ही माने जाते हैं। लाल कोट के अब कुछ अवशेष महरौली में संजय वन के आसपास मिलते हैं। महरौली के चप्पे-चप्पे पर इतिहास को पढ़ा जा सकता है। अनंगपुर नामक गांव आज भी दिल्ली-हरियाणा सीमा पर मिलता है। क्या यह भी अनंगपाल तोमर की राजधानी का अंग था? यहां पर आपको इस सवाल का जवाब कोई नहीं दे पाता। इतिहासकार राना सफवी अपनी किताब ‘वेयर स्टोनस स्पीक’ में कहती हैं, ‘तोमर वंश की राजधानी लाडो सराय से लेकर महरौली में थी। पृथ्वीराज चौहान के शासनकाल (1169-119 ईसवीं) में इस क्षेत्र का विस्तार हुआ और इसे नया नाम ‘किला राय पिथौरागढ़’ मिला।’ इन्हीं पृथ्वीराज चौहान के नाम पर राजधानी के दिल में पृथ्वीराज रोड जैसा पॉश एरिया है।

पांडवों की राजधानी कहां : दिल्ली के इतिहास को खंगालेंगे तो पहुंचेंगे महाभारतकाल में। कहते हैं, पुराना किले के पास इंद्रपत नाम का गांव था। वहीं थी पांडवों की राजधानी इंद्रप्रस्थ। ऐसी मान्यता है कि पहले इंद्रप्रस्थ को पांडवों ने बसाया था। पर अभी तक इसके पुख्ता प्रमाण नहीं मिले हैं। इधर से मिट्टी के काले बर्तन मिले चुके हैं, जिनके बारे में कहा गया था कि ये महाभारत कालीन हैं। निगमबोध श्मशान घाट को भी इंद्रप्रस्थ के दौर से जोड़कर देखा जाता है। बहरहाल, दिल्ली है एक पुरातन शहर, शहरों का शहर। एक हजार साल लंबा इतिहास समेटने के बाद भी ये है जवान, चल रहा है 24X7। इसके मिजाज का हिस्सा नहीं है थकना, हारना।

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जब बापू देखने गए कुतुब मीनार

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विवेक शुक्ला

कुतुब मीनार के बिना दिल्ली की कल्पना करना नामुमकिन है। दिल्ली आने वाला हर टूरिस्ट कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा स्थापित दिल्ली सल्तनत की इस बुलंद इमारत को निहारने के लिए जाता है। गांधी जी 13 अप्रैल, 1915 को इसे देखने पहुंचे थे। उनके साथ कस्तूरबा गांधी, स्वाधीनता सेनानी और देश के मशहूर हकीम अजमल खान भी थे। कुतुब मीनार सन 1192 ईसवी में बननी शुरू हुई थी।

किसने पूरा करवाया कुतुब मीनार : मोहम्मद गोरी के बेटे शहाबुद्दीन ने गद्दी संभालने के बाद अपने भरोसेमंद सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक को सत्ता की कमान सौंप दी थी। ऐबक ने 1206 ईसवी में दिल्ली से राज करना शुरू किया। उसने अपनी राजधानी महरौली क्षेत्र बसाई। यह दिल्ली का दूसरा शहर था। ऐबक की मौत के बाद उसका दामाद इल्तुतमिश दिल्ली का सुल्तान बन गया। इल्तुतमिश ने 1210 ई० से 1236 ई० तक शासन किया। इल्तुतमिश ने कुतुब मीनार का निर्माण पूरा करवाया था। उसका मकबरा वहां ही है। उसकी बेटी रजिया सुल्तान उसकी उत्तराधिकारी बनी थीं। रजिया भारत की पहली मुस्लिम शासिका बनी थीं। मृत्यु शैया पर ही इल्तुतमिश ने रजिया को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। उनकी कब्र तुर्कमान गेट में है।

बख्तियार काकी की दरगाह में जफर : इल्तुतमिश के दौर में ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी जैसे फकीर भी दिल्ली में थे। उनकी दरगाह कुतुब मीनार के करीब ही है। उनके दर पर दिल्ली वाले अब भी हाजिरी देने पहुंचते हैं। वह ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के अध्यात्मिक उत्तराधिकारी और शिष्य थे। कहते हैं, आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की भी चाहत थी कि उनकी कब्र बख्तियार काकी की मजार के पास ही बने, पर यह हो ना सका। महात्मा गांधी 27 जनवरी, 1948 को काकी की दरगाह में आए थे। वो सुबह 8 बजे ही दरगाह पर पहुंच गए थे। वहां पर तब उर्स चल रहा था।

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चीन हुआ समीचीन कनॉट प्लेस में

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विवेक शुक्ला

जैश ए मोहम्मद के सरगना महमूद अजहर को वैश्विक आतंकी घोषित करने की भारत की कोशिश के आगे फिर चीन की दीवार आड़े आ गई। चीन के इस रवैये से हमारे अपने भारतीय समाज में चीनी की तरह घुल गए चीनी मूल के भारतीय नाखुश हैं। कनॉट प्लेस के एक शूज शोरूम के मालिक जार्ज च्यू कहते हैं कि चीन को आतंकवाद को कुचलने में भारत का साथ देना चाहिए। च्यू के पिता 1925 में चीन के कैंटोन प्रांत से स्टीमर से कोलकाता पहुंचे थे। उसके बाद दिल्ली आ गए। कनॉट प्लेस में ही जॉन ब्रदर्स नाम से एक चीनी मूल के भारतीय का शूज का शो-रूम और भी है।

डीयू से जेएनयू में पढ़ाने वाले चुंग : राजधानी की चीनी बिरादरी के लिए खास हैं प्रो. तान चुंग। उन्होंने ही पहले दिल्ली यूनिवसिर्टी और फिर जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी के चाइनीज डिपार्टमेंट स्थापित किए थे। वे कहते रहे हैं कि भारत-चीन को अपने सीमा विवाद को हल करने को लेकर बहुत विलंब नहीं करना चाहिए। बिना सीमा विवाद हल किए संबंधों में तनाव बना रहेगा। हालांकि वे खुश थे कि दोनों देशों के बीच आपसी व्यापार बढ़ता रहा है। साल 2011 में पदम विभूषण से सम्मानित डा. तान चुंग की राय थी कि सीमा मसले को हल करने की दिशा में दोनों को प्रो-एक्टिव रुख अपनाना होगा। वे हमेशा कहते रहे हैं कि आतंकवाद के प्रश्न पर सारी दुनिया को एक मंच पर आना चाहिए। प्रो. तान चुंग के पुत्र सिद्धार्थ अमेरिका में बसने से पहले एम्स में थे।

पहाड़गंज में चीनी की तरह घुला चीनी डेंटिस्ट : हालांकि पहाड़गंज में भीड़ बढ़ गई, पंजाबी सुनाई कम देने लगी, पर इधर के मेन नेहरू बाजार में डा. चेन का डेंटल क्लीनिक पहले की तरह से आबाद है। ये पहाड़गंज का खास लैंडमार्क है। राजधानी की चाइनीज बिरादरी के पुराणपुरुष थे डा. चेन। उन्होंने इसे 1925 में शुरू किया था। अब उनके पुत्र स्टीफन प्रेक्टिस करते हैं। वे भी कहते हैं कि भारत-चीन को अपने संबंधों को निरंतर मजबूत करते रहना होगा। वे ये भी स्पष्ट कर देते हैं कि अब हमारा चीन से कोई संबंध नहीं रहा है। हम 100 फीसद भारतीय हैं। स्टीफन के भाई का डेंटल क्लीनिक लाजपत नगर में है।

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दिल्ली का दूसरा मंदिर मार्ग कहां

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विवेक शुक्ला

आप निश्चित रूप से भीष्म पितामाह मार्ग को राजधानी का दूसरा मंदिर मार्ग कह सकते हैं। पहला मंदिर मार्ग गोल मार्किट इलाके में है। अगर आप जवाहरलाल नेहरु स्टेडियम की तरफ से आते हुए लोधी एस्टेट का रुख कर रहे हैं, तब आपको सबसे पहले शिरडी साईं मंदिर, नामदेव मंदिर, फिर श्री रामायण विद्यापीठ और अंत में श्रीराम मंदिर मिलेंगे। ये सड़क हर गुरुवार को साईंमय हो जाती है। इसे बहुत से जानकार राजधानी का पहला शिरडी साईं मंदिर मानते हैं।

संत नामदेव का एकमात्र मंदिर : संत नामदेव को समर्पित शायद इसके अलावा राजधानी में कोई अन्य मंदिर नहीं है। संत नामदेव यूं तो महाराष्ट्र से थे, पर उन्होंने 20 वर्ष पंजाब में व्यतीत किए। उनके अनेक दोहे श्री गुरुग्रंथ साहिब में भी हैं। नामदेव जी का जन्म सन् 1270 में जिला सतारा में हुआ। उनके जीवन के साथ अनेक अलौकिक घटनाएं जुड़ी हुई हैं परंतु उन्होंने कभी भी करामाती होने का दावा नहीं किया। उनकी अपनी ही वाणी में, ‘मेरा किया कच्छु न होय। करि है राम होय है सोय।’ क्या आप इन तीर्थ स्थलों के दर्शन कर चुके हैं?

किस सड़क पर मंदिर ही मंदिर : भीष्म पितामाह मार्ग में शिरडी साईं मंदिर के साथ है श्री रामायण विद्यापीठ। इधर भी भक्त पूजा-अर्चना के लिए पहुंचते हैं। श्रीरामायण विद्यापीठ अपने आप में मंदिर के साथ-साथ रामायण तथा वेदों के गहन अध्ययन के केन्द्र के रूप में स्थापित हैं। इस मंदिरों से अट गई सड़क पर मंदिरों के शिलान्यास 70 के दशक के शुरूआती सालों में हुए थे। हालांकि इन्हें भूमि शहरी विकास मंत्रलाय ने 1968 के आसपास आवंटित कर दी थी। उस दौर में ये सारा क्षेत्र बंजर भूमि के समान था। सिर्फ सरकारी फ्लैट, बंगले और मेहर चंद खन्ना मार्केट थे। सीजीओ कॉम्पलेक्स वगैरह तो बहुत बाद में बने।

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गालिब के साथ सर सैयद अहमद

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विवेक शुक्ला

मिर्जा मोहम्मद असदुल्लाह बेग खान यानी मिर्जा गालिब और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संस्थापक सर सैयद अहमद खान खाटी दिल्ली वाले थे। दोनों पड़ोसी भी थे। दिल्ली में जन्मे सर सैयद अहमद का 27 मार्च, 1898 को निधन हो गया था। उन्होंने दिल्ली के महत्वपूर्ण स्मारकों पर ‘असरारुस्नादीद’ (इतिहास के अवशेष) नाम से महत्वपूर्ण किताब भी लिखी। गालिब ने ‘आईने अकबरी’ की प्रस्तावना लिखी थी जिसका सर सैयद ने फारसी से उर्दू में अनुवाद किया था। ‘असरारुस्नादीद’ दो खंडों में छपी थी। इसका प्रकाशन 1842 में हुआ था।

दोनों एंग्लो अरेबिक स्कूल में
गालिब ने ‘आईने अकबरी’ की प्रस्तावना में सर सैयद अहमद को सलाह दी थी कि वे अब भविष्य पर नजर रखें। अब उन्हें अकबर के दौर के संविधान पर लिखने की बजाय देश में गोरों के बढ़ते असर के बारे में सोचना होगा। गालिब अकादमी के सचिव अकील अहमद बताते हैं कि गालिब एक बार रामपुर जाते हैं। जब वहां पर पहले से रह रहे सर सैयद अहमद को गालिब के आने का पता चला तो वे उनसे मुलाकात करने के लिए गए। ये भी संयोग है कि सर सैयद अहमद उसी अजमेरी गेट के एंग्लो अरेबिक मदरसे (अब स्कूल) में पढ़े थे, जिसमें गालिब साहब को फारसी पढ़ाने की पेशकश हुई थी।

महरौली का हौज ए शम्सी
असरारुस्नादीद में जिन स्मारकों का जिक्र किया है, उनमें से कइयों को गोरों ने सन 1857 की क्रांति के बाद नेस्तानाबूत कर दिया था। फिर सन 1911 में दिल्ली के राजधानी बनने के बाद भी कई स्मारक तोड़ दिए गए। सर सैयद अहमद महरौली स्थित हौज ए शम्सी का जिक्र करते हैं। 800 साल पुराना राष्ट्रीय महत्व का यह ऐतिहासिक तालाब है। अफसोस कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) ने इसकी कायदे से सुध नहीं ली। एएसआई की संरक्षित स्मारकों की सूची में शामिल यह तालाब बदहाल है। वे असरारुस्नादीद में बाग ए नजीर का भी जिक्र करते हैं। ये भी महरौली इलाके में है। ये अब भी बेहतर तरीके से मेंटेन हो रहा है।






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